यकीं है
ये आगाज है
अंजाम नहीं
कारवाँ
नहीं थमेगा अभी
कई मंजिलें
और भी हैं
राहे गुजर में
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जिंदगी के आईने में
कर लेंगे हिसाब किताब
पलकों पे ठिटके
उन आंसुओं का
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यकीं ही नहीं होता
कि पत्थरों के इस शहर में
मसीहा कोई
तुमसा भी मिले
तुमसा भी मिले
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अपने रंजो गम को
अपने रंजो गम को
तारीख बनाने वालों
काश कल रात को
मर गए चाँद के कफ़न को
तुमने देखा होता
........................................
गुजारिश है तुझसे
गुजारिश है तुझसे
खामोश हो जा
ऐ चांदनी…….
यहाँ की
दस्तूरे जिंदगी में
सिसकना मना है ......
श्रीप्रकाश डिमरी १७ सितम्बर २०१४
श्रीप्रकाश डिमरी १७ सितम्बर २०१४
5 comments:
सुन्दर काव्य रचना
चाँदनी के गुमसुम होने का राज़ आखिरी दो क्षणिकाओं में मिला.. 'मर गए चाँद के कफ़न को तुमने देखा होता!!!बहुत खूब!!
बेहतरीन रचना।
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