.अपने आस पास मानवीय संवेदनाओं ..आस्थाओं के सरल ओर सहज रूप को ..अविश्वाश ओर दंभ से परास्त होते देखना कितना पीड़ा दायक होता है ... हमारी संवेदनाये ओर स्नेह इस भौतिक युग में सभ्यता के तथाकथित विकास में .. कितना बिखर चुके हैं ....मन भर आता है..ओर अनुभूतियाँ स्पन्दित होने लगती हैं.. .. अवाक रह जाता हूँ मैं....फिर भी विश्वास है .. संसार में मानवीय संवेदनाएं एवं पारस्परिक प्रेम की भावना के जीवंत होने का....
Wednesday, June 29, 2011
Tuesday, June 28, 2011
(१) सुनो शिशिर..... !!!!
हिम कँवर ...
जब तुम बरसाते
कम्पित विहग ..
कहाँ चले जाते ..!!!???
सुख की डोली में मगन
तुम झूलो
शिशुपन के पुलकित मन का
कैसा नीरव.....!!!!
ये सृजन ???
आह सखी ...
भर लायी हूँ मैं....!!
नैनो में उनका करुण रुदन ..
हिम कँवर ...
जब तुम बरसाते ..
कहो शिशिर ..!!!???
कम्पित विहग ...!!!
कहाँ चले जाते ...????
श्रीप्रकाश डिमरी जोशीमठ जनवरी २०११
(२)
सुनो बसंत !!!!......
हे सखी !!!....
हिम कँवर न मैं बरसाता ....
सत्य कहना ...
सूखे अधर तुम्हारे
फिर कैसे मुस्काते ???
और माँ वसुंधरा..
के जीवन पथ पर ...
शिशु बसंत के
नव किसलय नव पुष्प
कैसे खिल पाते ???
सुकुमार पंछी पुलकित हो
क्या ?? नव सृजन के गीत गाते ....!!!!
उठो सखी...
भरे हुये इन नैनों से
हिलमिल कर फिर छेड़े ..
नव सृजन की तान..........
ब्यर्थ न जाए जीवन का
ये शास्वत बलिदान......
श्रीप्रकाश डिमरी जोशीमठ १५ मार्च २०११
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